Friday, July 22, 2022

हर रात एक नया सपना

 हर रात एक नया सपना बुनता हुँ,

बुना सपना उलझ जाति है सुबह,

गाँठ पड्ति कैसि न ये मेँ समझता हुँ,


हर रात एक नया सपना बुनता हुँ ।।


होस मेँ हुँ मगर आलम बेहोसि का

रसता न दिखे मगर , हे डगर हमजोलि का

हर रात एक नया सपना बुनता हुँ,


बेखूमारी के  सुबह ढुढँते व रातेँ

सपनोँ मे नया रँग भरते नयि बातेँ

हर रात एक नया सपना बुनता हुँ ।।


देबेन्द्र कुमार रथ

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