हर रात एक नया सपना बुनता हुँ,
बुना सपना उलझ जाति है सुबह,
गाँठ पड्ति कैसि न ये मेँ समझता हुँ,
हर रात एक नया सपना बुनता हुँ ।।
होस मेँ हुँ मगर आलम बेहोसि का
रसता न दिखे मगर , हे डगर हमजोलि का
हर रात एक नया सपना बुनता हुँ,
बेखूमारी के सुबह ढुढँते व रातेँ
सपनोँ मे नया रँग भरते नयि बातेँ
हर रात एक नया सपना बुनता हुँ ।।
देबेन्द्र कुमार रथ
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